भारत को सर्वोच्च न्यायालय में और अधिक महिला न्यायाधीशों की आवश्यकता है

यूपीएससी प्रासंगिकता –

प्रारंभिक परीक्षा- अनुच्छेद 124 – सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति, कॉलेजियम प्रणाली, सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति,

मुख्य परीक्षा (सामान्य अध्ययन II)
मुद्दे: अपारदर्शी कॉलेजियम, लिंग/जाति विविधता का अभाव, नियुक्तियों में देरी ।

चर्चा  में क्यों?

हाल ही में 9 अगस्त 2025 को जब न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया रिटायर हुए, तो सुप्रीम कोर्ट में दो सीटें खाली हो गईं। इस बार लोग उम्मीद कर रहे थे कि महिला जजों की संख्या बढ़ाई जाएगी ताकि सुप्रीम कोर्ट में पुरुषों और महिलाओं के बीच संतुलन आए। लेकिन इन सब के बावजूद 29 अगस्त 2025 को न्यायमूर्ति विपुल पंचोली और न्यायमूर्ति आलोक अराधे को नियुक्त किया गया। इस प्रकार वर्तमान में सिर्फ एक ही महिला जज — न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना — सुप्रीम कोर्ट में विद्यमान है। कुल 34 जजों में से सिर्फ 1 महिला जज का होना लोगों को चौंकाने वाला लगा, और इसी वजह से फिर से यह मुद्दा चर्चा में आ गया कि सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम क्यों है।

पृष्ठभूमि: भारत के सर्वोच्च न्यायालय में महिलाएं


भारत के सुप्रीम कोर्ट की शुरुआत 1950 में हुई थी। तब से अब तक कुल 287 जज नियुक्त हुए हैं, लेकिन उनमें से सिर्फ 11 ही महिलाएं थीं। मतलब, सिर्फ 3.8% जज ही महिलाएं रही हैं।

● पहली महिला जज थीं न्यायमूर्ति फातिमा बीवी, जिन्हें 1989 में नियुक्त किया गया था।
● आज के समय में सिर्फ एक महिला जज हैं — न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना। अच्छी बात ये है कि वो 2027 में भारत की पहली महिला चीफ जस्टिस (मुख्य न्यायाधीश) बनेंगी। लेकिन वो इस पद पर सिर्फ 36 दिन ही रह पाएंगी।
● 2021 में एक बार में तीन महिला जज नियुक्त की गई थीं — हिमा कोहली, बेला त्रिवेदी और नागरत्ना। उस समय महिलाओं की संख्या थोड़ी बढ़कर 10% से ऊपर पहुंची थी।
इससे साफ पता चलता है कि महिलाओं को सुप्रीम कोर्ट में बराबरी से मौका नहीं मिल रहा है।

लैंगिक असंतुलन की समस्या

  1. कम संख्या: आज सुप्रीम कोर्ट में 34 जज हैं, लेकिन उनमें से सिर्फ एक महिला हैं।
  2. जाति और धर्म में भेदभाव: अब तक कोई भी महिला जज अनुसूचित जाति (SC) या अनुसूचित जनजाति (ST) समुदाय से नहीं आई हैं। और सिर्फ एक मुस्लिम महिला — फातिमा बीवी — सुप्रीम कोर्ट की जज बनी थीं।
  3. बार से सीधी नियुक्ति में कमी: अब तक 10 जज सीधे वकालत (Bar) से चुने गए हैं, लेकिन उनमें से सिर्फ एक ही महिला थीं — न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा।
  4. देर से नियुक्ति: महिला जजों को आमतौर पर ज्यादा उम्र में नियुक्त किया जाता है, जिससे उनका कार्यकाल छोटा होता है। इसी वजह से उन्हें सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम में शामिल होने या मुख्य न्यायाधीश (CJI) बनने का मौका कम ही मिल पाता है।

महिला न्यायाधीश क्यों ज़रूरी हैं?

1. प्रतिनिधित्व और वैधता
न्यायपालिका हमारे देश में न्याय और समानता की रक्षक होती है।
● जब जजों की टीम समाज की सही तस्वीर दिखाती है, तब लोग कोर्ट को ज्यादा भरोसेमंद मानते हैं।
● लेकिन अगर आबादी की आधी संख्या (महिलाएं) अदालत में बहुत कम दिखें, तो लोगों को लगता है कि कोर्ट सबकी बात नहीं सुनता

2. निर्णयों में विविध दृष्टिकोण
● महिलाएं अपने जीवन में भेदभाव, परिवार की ज़िम्मेदारी, और कामकाज की चुनौतियों से गुज़रती हैं।
● ये अनुभव उन्हें संवेदनशील और समझदार निर्णय लेने में मदद करते हैं।
उदाहरण: जब कोई केस पारिवारिक कानून, बच्चों की कस्टडी, या ऑफिस के अधिकारों से जुड़ा होता है, तो महिला जज ऐसे पहलुओं पर ध्यान दे सकती हैं जिन्हें पुरुष जज शायद न समझ पाएं।

3. संविधान में समानता की गारंटी
● हमारे संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 सभी नागरिकों को समानता और गरिमा का अधिकार देते हैं।
● लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट खुद इन मूल्यों को नहीं अपनाता, तो इन अधिकारों की विश्वसनीयता कमजोर हो जाती है। यानि लैंगिक संतुलन वाली बेंच (gender-balanced bench) सिर्फ ज़रूरत नहीं, बल्कि यह एक संवैधानिक जिम्मेदारी है।

4. जेंडर से जुड़े मामलों में न्यायिक संवेदनशीलता
यौन हिंसा, ऑफिस में उत्पीड़न, पारिवारिक झगड़े, या संपत्ति के अधिकार जैसे मामलों में जेंडर-संवेदनशील सोच बहुत ज़रूरी होती है।
● महिला जज ऐसे मामलों में ज़्यादा न्यायपूर्ण और संतुलित नज़रिया ला सकती हैं।
उदाहरण: विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) केस में महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर सुरक्षा के दिशा-निर्देश बने थे। इस ऐतिहासिक केस में महिला जजों की भूमिका बहुत अहम थी।

न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया और उसमें मौजूद खामियाँ

1. कॉलेजियम प्रणाली
सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के ज़रिए होती है।
● इसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) और 4 सबसे वरिष्ठ जज शामिल होते हैं। ये लोग मिलकर नामों की सिफारिश राष्ट्रपति को भेजते हैं, जो औपचारिक मंजूरी देता है।
👉 ये प्रणाली न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखती है, लेकिन इसके कारण फैसले बंद कमरों में लिए जाते हैं, जिससे पारदर्शिता नहीं रहती।

2. अस्पष्ट मानदंड
● नियुक्ति के लिए ऐसा कोई लिखित नियम नहीं है जिसमें लिंग, जाति, क्षेत्र  या पेशेवर पृष्ठभूमि को ध्यान में रखने की बात हो।
● आमतौर पर निर्णय “वरिष्ठता” और “योग्यता” पर आधारित होते हैं, लेकिन ये शब्द स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं हैं और इनका उपयोग कई बार असंगत होता है।
👉 पारदर्शिता की कमी के कारण महिलाओं और हाशिए के समूहों का प्रतिनिधित्व बहुत कम होता है।

3. बिना नीति के दिखावटी प्रतिनिधित्व (

● कभी-कभी कॉलेजियम विविधता (diversity) का ज़िक्र करता है।
● लेकिन चूंकि इसके लिए कोई स्थायी नीति नहीं है, इसलिए यह केवल अस्थायी और प्रतीकात्मक  बनकर रह जाता है।
👉 उदाहरण: जब महिलाएं नियुक्त होती भी हैं, तो वो लंबी योजना या सुधार की दिशा में नहीं होती।

4. वरिष्ठ महिला जजों को नज़रअंदाज़ करना
● हाल के समय में कई वरिष्ठ महिला जजों को नियुक्ति में नजरअंदाज किया गया है।
● जबकि उनके स्थान पर कम अनुभव वाले पुरुष जज को नियुक्त कर दिया गया।
👉 इससे पता चलता है कि न्यायपालिका में एक छुपा हुआ पूर्वाग्रह  है और “ग्लास सीलिंग” अब भी बनी हुई है — यानी महिलाओं के आगे बढ़ने की दिशा में एक अदृश्य दीवार।

वैश्विक तुलना

अमेरिका : सुप्रीम कोर्ट में 9 में से 4 महिला जज हैं, जिनमें पहली अश्वेत महिला जज (Ketanji Brown Jackson, 2022) भी शामिल हैं।
यूके (UK): सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगभग 25% है।
दक्षिण अफ्रीका: संवैधानिक अदालत में 30% महिलाएं जज हैं।
भारत: ऐतिहासिक रूप से 4% से भी कम, और अभी सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ 3% महिला जज हैं

उच्चतर  न्यायपालिका में महिलाओं के प्रवेश की चुनौतियाँ :

1. बार में ग्लास सीलिंग (Glass Ceiling in the Bar)
● महिलाओं के लिए मुश्किलें वकालत के क्षेत्र (Bar) से ही शुरू हो जाती हैं।
● बहुत कम महिला वकील ऐसी होती हैं जिन्हें सीनियर एडवोकेट का दर्जा मिलता है या जिन्हें बड़े और चर्चित केस मिलते हैं।
● चूंकि कॉलेजियम अक्सर सीनियर एडवोकेट्स में से ही जज चुनता है, इसलिए महिलाओं के लिए अवसर अपने आप ही सीमित हो जाते हैं
 उदाहरण: सुप्रीम कोर्ट में 500+ सीनियर एडवोकेट्स में से बहुत कम महिलाएं हैं।

2. लिंग आधारित सोच और पक्षपात
● महिलाओं को अकसर ऐसा माना जाता है कि वे पारिवारिक या सेवा कानून  जैसे मामलों में ज़्यादा उपयुक्त हैं, जबकि पुरुष वकील आमतौर पर कॉमर्शियल या संवैधानिक मामलों में आगे होते हैं।
● ऐसी पूर्वधारणाएं महिलाओं की काबिलियत को कम आंकती हैं, जिससे वे बड़े और जटिल मामलों में दिख नहीं पातीं।
👉 इस प्रकार का पक्षपात यह तय करता है कि किसे आगे बढ़ने का मौका मिलेगा और किसे नहीं।

3. पारिवारिक कारणों से पदोन्नति में देरी
● न्यायिक पदोन्नति ज़्यादातर वरिष्ठता आधारित होती है।
● महिलाएं जब मैटरनिटी लीव या परिवार की जिम्मेदारियों के लिए ब्रेक लेती हैं, तो उनके साथी पुरुष आगे निकल जाते हैं।
● भले ही महिला जज समान रूप से योग्य हों, उन्हें वरिष्ठता के आधार पर पीछे छोड़ दिया जाता है
 इससे महिलाओं के लिए एक संस्थागत बाधा बन जाती है।

4. कॉलेजियम की अपारदर्शिता
● कॉलेजियम सिस्टम में चयन के मानदंड स्पष्ट नहीं हैं।
● जब लैंगिक या विविधता को लेकर कोई लिखित नीति नहीं होती, तो अनजाने में पक्षपात आ जाता है।
● कई बार वरिष्ठता महिला जज, जो योग्य होती हैं, फिर भी उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
 जब तक कोई संस्थागत नीति नहीं बनती, तब तक महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व बना रहेगा।

न्यायपालिका में लैंगिक विविधता के लिए आगे की राह

1. जेंडर कोटा को संस्थागत बनाना
● सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में कम से कम 30% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएँ।
उदाहरण: सुप्रीम कोर्ट ने खुद बार काउंसिल्स और एसोसिएशन्स को यह निर्देश दिया था कि वे महिलाओं को नेतृत्व में स्थान दें।
 कोटा सिस्टम लाकर व्यवस्था में स्थायी बदलाव किया जा सकता है, सिर्फ दिखावे के लिए नामांकन नहीं।

2. कॉलेजियम प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना
● कॉलेजियम को चयन के स्पष्ट मानदंड सार्वजनिक करने चाहिए, जिसमें लिंग, जाति, क्षेत्र और पेशेवर पृष्ठभूमि को स्पष्ट मानक के रूप में शामिल किया जाए।
नियुक्तियों के पीछे का कारण सार्वजनिक करने से उत्तरदायित्व और विश्वास दोनों बढ़ेंगे।
 इससे भेदभाव की धारणा कम होगी और महिलाओं को न्यायसंगत रूप से मौका मिलेगा।

3. बार से महिलाओं को प्रोत्साहित करना
सिर्फ हाई कोर्ट से नहीं, बल्कि सीधे बार से भी अधिक महिलाओं को उच्च न्यायपालिका में नियुक्त किया जाए।
● ऐसे मेंटॉरशिप नेटवर्क बनाए जाएँ जहाँ वरिष्ठ जज और सीनियर वकील, महिलाओं को जटिल मुकदमों में गाइड करें।
 इससे ज्यादा योग्य महिला वकीलों का चयन संभव होगा।

4. युवा उम्र में नियुक्तियाँ
ऐसी महिलाओं को जल्दी जज नियुक्त किया जाए जो प्रतिभाशाली और सक्षम हैं, ताकि:
● वे लंबे समय तक हाई कोर्ट में सेवाएं दे सकें,
● उन्हें कॉलेजियम में आने और संभवतः CJI बनने का मौका मिल सके।
 इससे सीनियरिटी की बाधा टूटेगी जो महिलाओं को अभी पीछे रखती है।

5. अंतर्विभागीय समावेशन
● सिर्फ लिंग नहीं, बल्कि इस पर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि कौन-कौन सी महिलाएं शामिल हों:

  • दलित, आदिवासी, ओबीसी महिलाएं,
  • अल्पसंख्यक धर्मों की महिलाएं,
  • क्षेत्रीय और भाषायी विविधता से आने वाली महिलाएं।
    इससे न्यायपालिका भारत के पूरे समाज की असली तस्वीर को दर्शा सकेगी।

निष्कर्ष (Conclusion)

सुप्रीम कोर्ट अगर बराबरी और न्याय जैसे मुद्दों पर निर्णय ले रहा है, तो वह सिर्फ पुरुषों का संस्थान नहीं बना रह सकता। सच्ची न्यायिक वैधता  सिर्फ बौद्धिक क्षमता से नहीं, बल्कि प्रतिनिधित्व की विविधता  से आती है। अब समय आ गया है कि भारत की उच्च न्यायपालिका, लैंगिक समावेशन  को संस्थागत सिद्धांत  के रूप में अपनाए, न कि संयोग के भरोसे छोड़े। तभी न्यायालय वास्तव में संविधान के समानता और न्याय के विज़न को साकार कर सकेगा।


UPSC Prelims Practice Question

Q1. भारत के सुप्रीम कोर्ट में महिला न्यायाधीशों के बारे में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:

  1. न्यायमूर्ति फातिमा बीवी सुप्रीम कोर्ट कीपहली महिला जज थीं।
  2. न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना भारत कीपहली महिला मुख्य न्यायाधीश (CJI) बनेंगी।
  3. न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा सुप्रीम कोर्ट मेंबार से सीधे नियुक्तहोने वालीएकमात्र महिला हैं।

उपरोक्त में से कौन-कौन से कथन सही हैं?
A. 1 और 2 केवल
B. 2 और 3 केवल
C. 1 और 3 केवल
D. 1, 2 और 3

सही उत्तर: (D)


UPSC Mains Practice Question

Q. “महिला न्यायाधीशों की मौजूदगी सिर्फ प्रतिनिधित्व की बात नहीं है, बल्कि यह न्यायिक फैसलों को विविध दृष्टिकोणों से समृद्ध बनाती है।” सुप्रीम कोर्ट के संदर्भ में चर्चा कीजिए।
(10 अंक, 150 शब्द)

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