भारत में संवैधानिक उपचारों का अधिकार और रिट याचिकाएँ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक की पत्नी ने सर्वोच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus) दायर की। यह याचिका उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA), 1980 के तहत की गई गिरफ्तारी को चुनौती देने के लिए दायर की गई। वांगचुक लद्दाख को राज्य का दर्जा देने और उसे संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की माँग को लेकर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। उनकी गिरफ्तारी ने एक बार फिर रिट अधिकार क्षेत्र और अनुच्छेद 32 226 के तहत गारंटीकृत संवैधानिक उपचारों को चर्चा का विषय बना दिया है।

रिटों का संवैधानिक आधार

  • अनुच्छेद 32: सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट जारी करने की शक्ति देता है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसे संविधान का हृदय और आत्मा” कहा था।
  • अनुच्छेद 226: उच्च न्यायालयों को न केवल मौलिक अधिकारों के लिए, बल्कि किसी भी अन्य कानूनी अधिकार की रक्षा हेतु भी रिट जारी करने का अधिकार है।
  • न्यायिक समीक्षा: रिट क्षेत्राधिकार कानून के शासन को सुनिश्चित करता है और राज्य की मनमानी को रोकता है। यह मूल संरचना सिद्धांत का हिस्सा है (केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, 1973)।

भारत में रिट के प्रकार और उनका दायरा

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus – “शरीर प्रस्तुत करो”)

  • उद्देश्य: किसी व्यक्ति को गैरकानूनी हिरासत से मुक्त कराना।
  • जारी किया जा सकता है:
    • राज्य प्राधिकरणों के विरुद्ध।
    • निजी व्यक्तियों के विरुद्ध (यदि अवैध हिरासत साबित हो)।
  • जारी नहीं होगा जब:
    • हिरासत वैध हो (जैसे किसी वैध कानून के अंतर्गत निवारक निरोध)।
    • सक्षम न्यायालय द्वारा आदेशित हिरासत।
  • प्रमुख मामला: ए.डी.एम. जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976) – आपातकाल के दौरान इस अधिकार को निलंबित किया गया था, लेकिन मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) और पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) में इसे पुनः मजबूत किया गया।

2. परमादेश (Mandamus – “हम आदेश देते हैं”)

  • उद्देश्य: किसी सरकारी अधिकारी, निकाय या निचली अदालत को उसके वैधानिक कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाध्य करना।
  • जारी किया जा सकता है:
    • सार्वजनिक प्राधिकरणों, सरकारी विभागों, वैधानिक निकायों या कानून द्वारा निर्मित निगमों के विरुद्ध।
  • जारी नहीं किया जा सकता:
    • निजी निकायों या व्यक्तियों के विरुद्ध।
    • विवेकाधीन कार्यों के मामले में।
    • राष्ट्रपति या राज्यपालों को उनके आधिकारिक कर्तव्यों के संबंध में।

3. निषेध (Prohibition)

  • उद्देश्य: किसी उच्च न्यायालय द्वारा निचली अदालत/न्यायाधिकरण को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने या अवैध कार्यवाही करने से रोकना।
  • जारी किया जा सकता है:
    • न्यायिक और अर्ध-न्यायिक निकायों के विरुद्ध।
  • जारी नहीं किया जा सकता:
    • प्रशासनिक निकायों या विधायी कार्यों के विरुद्ध।

4. प्रतिषेध/प्रमाणित आदेश (Certiorari)

  • उद्देश्य: निचली अदालत या न्यायाधिकरण द्वारा अधिकार क्षेत्र से बाहर दिए गए या प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध पारित आदेशों को रद्द करना।
  • जारी किया जा सकता है:
    • न्यायिक और अर्ध-न्यायिक निकायों के विरुद्ध।
  • जारी नहीं किया जा सकता:
    • पूरी तरह से प्रशासनिक कार्यवाहियों के विरुद्ध।
  • प्रमुख मामला: उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मोहम्मद नूह (1958) – प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन करने वाले निर्णय के विरुद्ध Certiorari जारी किया गया।

5. अधिकार-पृच्छा (Quo Warranto – “किस अधिकार से”)

  • उद्देश्य: यह जांचना कि कोई व्यक्ति किसी सार्वजनिक पद पर वैध अधिकार से बैठा है या नहीं।
  • जारी किया जा सकता है:
    • संविधान या कानून द्वारा बनाए गए किसी वास्तविक सार्वजनिक पद पर आसीन व्यक्ति के विरुद्ध।
  • जारी नहीं किया जाएगा जब:
    • पद निजी प्रकृति का हो।
    • पद अस्थायी, गैर-वैधानिक या औपचारिक हो।

सर्वोच्च न्यायालय बनाम उच्च न्यायालय क्षेत्राधिकार

विशेषताएँसर्वोच्च न्यायालय (अनुच्छेद 32)उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 226)
उद्देश्यकेवल मौलिक अधिकारों का प्रवर्तनमौलिक अधिकारों + अन्य कानूनी अधिकारों का प्रवर्तन
क्षेत्रीय दायरापूरे भारत में लागूसंबंधित उच्च न्यायालय की क्षेत्रीय सीमा तक
प्रकृतिमौलिक अधिकार स्वयं में (इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता)विवेकाधीन शक्ति (अस्वीकृत किया जा सकता है)
पहुँचसीधे सर्वोच्च न्यायालय तकसुलभता, कम खर्च और शीघ्रता के कारण प्रायः प्राथमिक विकल्प

समकालीन प्रासंगिकता और मुद्दे

  • निवारक निरोध बनाम स्वतंत्रता: NSA और UAPA जैसे कानूनों के तहत गिरफ्तारियाँ अक्सर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं को जन्म देती हैं, जो सुरक्षा और स्वतंत्रता के बीच संतुलन पर प्रश्न उठाती हैं।
  • न्यायिक बोझ: बड़ी संख्या में रिट याचिकाएँ अदालतों में लंबित मामलों को बढ़ाती हैं।
  • सुगम्यता: हाशिए पर रहने वाले वर्गों के लिए रिट न्याय तक पहुँच का एक प्रभावी साधन है।
  • दुरुपयोग की आशंका: बार-बार और मनमाने ढंग से निवारक निरोध का प्रयोग मौलिक अधिकारों की भावना को कमजोर कर सकता है।

रिट अधिकार क्षेत्र का महत्व

  • मौलिक अधिकारों को व्यावहारिक और प्रवर्तनीय बनाता है।
  • कार्यपालिका और विधायिका की अति पर नियंत्रण रखता है।
  • न्यायिक समीक्षा द्वारा संवैधानिक सर्वोच्चता सुनिश्चित करता है।
  • लोकतंत्र और नागरिक सशक्तिकरण को मज़बूत करता है।

निष्कर्ष

संवैधानिक उपचारों का अधिकार भारत के लोकतांत्रिक ढाँचे की नींव है। यह सुनिश्चित करता है कि मौलिक अधिकार केवल घोषणाएँ न होकर, व्यावहारिक रूप से लागू होने वाली गारंटी हों। सोनम वांगचुक मामले में दायर हालिया बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका ने यह दर्शाया कि रिट अधिकार क्षेत्र नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कितना आवश्यक है। ऐसे समय में जब राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक स्वतंत्रता के बीच टकराव अक्सर देखने को मिलता है, रिट क्षेत्राधिकार न्यायपालिका के हाथों में संविधान की आत्मा को सुरक्षित रखने का सबसे सशक्त उपकरण है।

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