यूपीएससी के लिए प्रासंगिकता
- जीएस पेपर 2: संवैधानिक मूल्य, शक्तियों का पृथक्करण, न्यायपालिका की भूमिका
- जीएस पेपर 4: शासन में नैतिकता, नैतिक अखंडता, मूल्यों पर आधारित नेतृत्व
- निबंध पेपर: भारत में लोकतंत्र, नैतिकता, न्याय और कानून का शासन
चर्चा में क्यों?
संवैधानिक नैतिकता (Constitutional Morality) की अवधारणा को हाल के ऐतिहासिक सुप्रीम कोर्ट के फैसलों — नवतेज सिंह जौहर (2018), सबरीमाला (2018) और पुट्टस्वामी (2017) — के माध्यम से नया ध्यान मिला है।
इन मामलों ने यह स्पष्ट किया कि लोकतंत्र केवल चुनावों तक सीमित नहीं है, बल्कि संविधान की नैतिक और वैचारिक सीमाओं के भीतर शासन करने से संबंधित है।
जैसे-जैसे भारत बढ़ती संस्थागत और सामाजिक चुनौतियों का सामना कर रहा है, यह अवधारणा न्याय, समानता और संवैधानिक शासन सुनिश्चित करने का केंद्रीय तत्व बन गई है।
पृष्ठभूमि: उत्पत्ति और विकास
‘संवैधानिक नैतिकता’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले इतिहासकार जॉर्ज ग्रोट ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ ग्रीस (1846) में किया था। उन्होंने कहा था कि नागरिकों को अपने संविधान के प्रति “गहरा लगाव” होना चाहिए — राजनीतिक मतभेदों के दौरान भी इसके स्वरूपों और मूल्यों का सम्मान करना चाहिए।
बाद में डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने संविधान सभा की बहसों में इस विचार को प्रस्तुत करते हुए कहा था —
“संवैधानिक नैतिकता एक स्वाभाविक भावना नहीं है। इसे विकसित करना होगा। भारत में लोकतंत्र भारतीय भूमि पर केवल एक ऊपरी परत है, जो मूलतः अलोकतांत्रिक है।”
अंबेडकर की यह चेतावनी आज भी प्रासंगिक है — सच्चा लोकतंत्र केवल संवैधानिक पाठ पर नहीं, बल्कि नागरिकों, विधायकों और संस्थानों के नैतिक आचरण पर निर्भर करता है।
अवधारणा को समझना
संवैधानिक नैतिकता का अर्थ है — संविधान के शाब्दिक पाठ का पालन करने के बजाय उसकी आत्मा और सिद्धांतों का सम्मान करना।
यह अपेक्षा करती है कि जो भी शक्ति का प्रयोग करें — चाहे राजनेता, न्यायाधीश या नागरिक — वे निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और संवैधानिक सीमाओं के भीतर कार्य करें।
प्रमुख तत्व
| तत्व | विवरण | उदाहरण |
| कानून का शासन (Rule of Law) | हर कोई संविधान के अधीन है — कोई भी उससे ऊपर नहीं। | दोषी ठहराए गए विधायकों की अयोग्यता संवैधानिक जवाबदेही को सुदृढ़ करती है। |
| संस्थागत अखंडता (Institutional Integrity) | राज्य के प्रत्येक अंग को अपनी सीमाओं में रहते हुए कार्य करना चाहिए। | कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित होती है। |
| गरिमा और समानता (Dignity and Equality) | बहुसंख्यकवाद से अल्पसंख्यकों और कमजोर वर्गों की रक्षा करना। | नवतेज सिंह जौहर निर्णय ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया, जिससे गरिमा और समानता की पुष्टि हुई। |
| सहिष्णुता और संवाद (Tolerance and Dialogue) | स्वस्थ असहमति और सार्वजनिक तर्क-वितर्क को प्रोत्साहन देना। | श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015) में स्वतंत्र अभिव्यक्ति को संवैधानिक मूल्य के रूप में बरकरार रखा गया। |
दार्शनिक और तुलनात्मक अंतर्दृष्टि
कानून और नैतिकता के बीच संबंध ने लंबे समय से विचारकों को आकर्षित किया है।
1960 के दशक में हार्ट–डेवलिन बहस में यह प्रश्न उठाया गया कि क्या कानून को नैतिक मूल्यों को लागू करना चाहिए।
- लॉर्ड डेवलिन का मानना था कि कानून को समाज के नैतिक ताने-बाने को बनाए रखना चाहिए।
- एच.एल.ए. हार्ट का मत था कि कानून के माध्यम से नैतिकता लागू करने से व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दमन हो सकता है।
भारतीय संविधान ने इन दोनों विचारों में संतुलन स्थापित किया — यह समानता और न्याय जैसे नैतिक मूल्यों को आत्मसात करता है, फिर भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को नैतिक पुलिसिंग से बचाता है।
उदाहरण:
- कानून नैतिकता का नेतृत्व करता है — अस्पृश्यता का उन्मूलन; समाज में स्वीकृति से पहले ही कानून ने इसे समाप्त किया।
- नैतिकता कानून का नेतृत्व करती है — लैंगिक समानता; सामाजिक परिवर्तन धीरे-धीरे कानूनी सुधारों को प्रेरित करता है।
इस प्रकार, संवैधानिक नैतिकता नैतिक अंतरात्मा और कानूनी अधिकार के बीच एक जीवंत सेतु है — जो कानून को मानवीय, समावेशी और प्रगतिशील बनाए रखती है।
न्यायिक व्याख्या: न्यायालयों की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट ने समय के साथ संवैधानिक नैतिकता की अवधारणा को गहराई से परिभाषित किया है:
- सबरीमाला मामला (2018): सार्वजनिक नैतिकता को संवैधानिक नैतिकता के अधीन बताया, और लिंग आधारित बहिष्कार को असंवैधानिक घोषित किया।
- मनोज नरूला बनाम भारत संघ (2014): राजनीतिक नेताओं से नैतिक सीमाओं में रहकर कार्य करने का आग्रह किया, भले ही प्रवर्तन को राजनीतिक विवेक पर छोड़ा गया।
- के.एस. पुट्टस्वामी मामला (2017): गोपनीयता और गरिमा को संवैधानिक नैतिकता से जोड़ा, और शासन में नैतिक सीमाओं के सम्मान पर बल दिया।
- राज्य (एनसीटी दिल्ली) बनाम भारत संघ (2018): इस अवधारणा को सहयोग, संस्थागत सम्मान और सामूहिक जिम्मेदारी जैसे मूल्यों तक विस्तारित किया।
इन मामलों से न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संवैधानिक नैतिकता सभी संवैधानिक संस्थाओं और व्यक्तियों के लिए नैतिक मानक निर्धारित करती है — यद्यपि प्रत्येक उल्लंघन कानूनी रूप से दंडनीय नहीं होता, पर इसके नैतिक और राजनीतिक परिणाम अवश्य होते हैं।
संस्थागत जवाबदेही और संवैधानिक नैतिकता
संवैधानिक नैतिकता यह भी परिभाषित करती है कि संविधानिक संस्थानों को लोकतंत्र में कैसे आचरण करना चाहिए।
यह आपसी सम्मान, पारदर्शिता और सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) को प्रोत्साहित करती है।
उदाहरण: राज्य (एनसीटी दिल्ली) बनाम भारत संघ (2018) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र और दिल्ली सरकार को टकराव नहीं, बल्कि सहयोग की भावना से कार्य करना चाहिए, जो संवैधानिक नैतिकता का प्रतीक है।
हालांकि, हाल के वर्षों में न्यायपालिका और कार्यपालिका या राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच बढ़ते मतभेद इस सहकारी भावना के क्षरण को दर्शाते हैं।
लोकतंत्र के सुचारू संचालन के लिए संस्थागत नैतिकता को व्यक्तिगत नैतिकता का पूरक बनना आवश्यक है।
संवैधानिक नैतिकता के अभ्यास में चुनौतियाँ
- परिभाषा में अस्पष्टता: न्यायालयों द्वारा अलग-अलग व्याख्या से असंगति उत्पन्न होती है।
- न्यायिक अतिरेक: अत्यधिक नैतिक तर्क न्यायिक विचारों को लोकतांत्रिक बहस का विकल्प बना सकता है।
- राजनीतिक अवसरवादिता: नेता संवैधानिक मूल्यों की अपेक्षा वोट-बैंक राजनीति को प्राथमिकता देते हैं।
- सामाजिक पदानुक्रम: जातिवाद, पितृसत्ता और असहिष्णुता समानता और न्याय के आत्मसात में बाधा हैं।
- संस्थागत विश्वास का क्षरण: बार-बार के सत्ता संघर्ष संवैधानिक कार्यप्रणाली की नैतिक जड़ को कमजोर करते हैं।
उदाहरण: अंबेडकर की “अलोकतांत्रिक भूमि” की चेतावनी दर्शाती है कि गहरे सामाजिक पूर्वाग्रह अब भी संवैधानिक नैतिकता के पालन में बाधक हैं।
आगे की राह
- नागरिक शिक्षा: स्कूलों और समुदायों में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों की शिक्षा दी जानी चाहिए।
- नैतिक नेतृत्व: राजनीतिक नेताओं को लोकलुभावनवाद की बजाय ईमानदारी और संवैधानिक आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।
- न्यायिक संयम: न्यायालयों को संवैधानिक नैतिकता की व्याख्या में सावधानी बरतनी चाहिए और विधायी अतिरेक से बचना चाहिए।
- संस्थागत मजबूती: चुनाव आयोग, सीएजी और न्यायपालिका जैसी संस्थाओं की स्वतंत्रता बनाए रखना आवश्यक है ताकि संतुलन कायम रहे।
- नागरिक जिम्मेदारी: लोकतंत्र तभी फलता-फूलता है जब नागरिक सहिष्णुता, सम्मान और अनुशासन का पालन करते हैं।
उदाहरण: स्वच्छ भारत या बेटी बचाओ जैसे अभियानों की सफलता नागरिकों की नैतिक भागीदारी पर निर्भर करती है, न कि केवल कानूनी अनुपालन पर।
निष्कर्ष
संवैधानिक नैतिकता भारतीय गणराज्य की अंतरात्मा है।
यह संविधान को एक कानूनी दस्तावेज़ से आगे बढ़ाकर शासन और नागरिकता के लिए जीवंत नैतिक मार्गदर्शक बना देती है।
इसकी असली शक्ति नागरिकों की उस इच्छा में निहित है जो उन्हें न्याय और निष्पक्षता बनाए रखने के लिए प्रेरित करती है, भले ही वह निर्णय लोकप्रिय न हो।
जैसा कि अंबेडकर ने कहा था —
“भारत में लोकतंत्र को राजनीतिक सुविधा पर नहीं, बल्कि संवैधानिक नैतिकता पर टिका होना चाहिए।”
तभी भारत का लोकतंत्र केवल एक “ऊपरी परत” नहीं रहेगा, बल्कि नैतिक शासन और समान गरिमा पर आधारित एक गहरी जड़ वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था बन पाएगा।
यूपीएससी मुख्य परीक्षा पिछले वर्ष के प्रश्न-
प्रश्न: ‘संवैधानिक नैतिकता’ संविधान में ही निहित है और इसके आवश्यक पहलुओं पर आधारित है। प्रासंगिक न्यायिक निर्णयों की सहायता से ‘संवैधानिक नैतिकता’ के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए। (150 शब्द, 10 अंक) (2021 यूपीएससी)
‘संवैधानिक नैतिकता’ पर यूपीएससी मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न
प्रश्न: 1. ‘संवैधानिक नैतिकता’ शब्द से आप क्या समझते हैं? यह ‘सार्वजनिक नैतिकता’ या ‘सामाजिक नैतिकता’ से किस प्रकार भिन्न है? आधुनिक लोकतांत्रिक शासन के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा कीजिए। (150 शब्द, 10 अंक)
प्रश्न: 2. “संवैधानिक नैतिकता भारतीय संविधान की आत्मा है।” परीक्षण कीजिए कि भारतीय न्यायपालिका ने मौलिक अधिकारों और संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए इस सिद्धांत का किस प्रकार उपयोग किया है।
(250 शब्द, 15 अंक)
SOURCE-THE HINDU
