यूपीएससी प्रासंगिकता (UPSC Relevance)
- प्रारंभिक परीक्षा (Prelims): अनुच्छेद 19(2), 129, 215, न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971, अवमानना के प्रकार – सिविल और आपराधिक, 2006 का संशोधन (सत्य और सद्भाव), प्रमुख निर्णय: एम.वी. जयरंजन (2015), अश्विनी कुमार घोष (1952)।
- मुख्य परीक्षा (Mains): सामान्य अध्ययन पेपर II – राजव्यवस्था और शासन।
सुर्खियों में क्यों? (Why in News)
भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ कथित रूप से अपमानजनक टिप्पणियों से जुड़े हालिया विवाद ने एक बार फिर इस बहस को तेज़ कर दिया है कि भारत में “न्यायालय की अवमानना” किसे माना जाता है। सोशल मीडिया पर प्रसारित ऐसे बयानों को न्यायपालिका की गरिमा और अधिकार को कमज़ोर करने वाले कृत्यों के रूप में देखा जा रहा है, जिसके कारण अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की मांग की जा रही है।

पृष्ठभूमि (Background)
न्यायपालिका संविधान की संरक्षक है और न्याय, जवाबदेही और संवैधानिक नैतिकता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस संस्था को प्रेरित हमलों या निराधार आलोचना से बचाने के लिए, संविधान निर्माताओं ने न्यायालय की अवमानना की अवधारणा का प्रावधान किया।
जब भारत ने अपना संविधान अपनाया:
- अनुच्छेद 19(2) के तहत न्यायालय की अवमानना को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता [अनुच्छेद 19(1)(a)] पर एक उचित प्रतिबंध (reasonable restriction) के रूप में शामिल किया गया।
- अनुच्छेद 129 ने सर्वोच्च न्यायालय को अपनी अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति दी।
- अनुच्छेद 215 ने उच्च न्यायालयों को भी ऐसी ही शक्ति प्रदान की।
इन संवैधानिक प्रावधानों को बाद में न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 में संहिताबद्ध (codified) किया गया, जो अवमानना की परिभाषा, दायरे, प्रक्रिया और दंड को निर्धारित करता है।
अभिलेख न्यायालय और उनकी शक्तियां (Courts of Record and their Powers)
सर्वोच्च न्यायालय (अनुच्छेद 129) और उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 215) दोनों को अभिलेख न्यायालय (Courts of Record) घोषित किया गया है।
इसका मतलब है:
- उनके निर्णय सदैव स्मृति और संदर्भ के लिए संरक्षित रखे जाते हैं।
- उनके पास अपनी गरिमा बनाए रखने और न्याय के सुचारू कामकाज को सुनिश्चित करने के लिए अवमानना के लिए दंडित करने की अंतर्निहित शक्तियाँ हैं।
न्यायालय की अवमानना क्या है? (What is Contempt of Court?)
न्यायालय की अवमानना एक कानूनी तंत्र है जो न्यायिक संस्थाओं के अधिकार और गरिमा की रक्षा करता है, और उन व्यक्तियों को दंडित करता है जो न्यायालयों का अनादर करते हैं या उनके कामकाज में बाधा डालते हैं।
सरल शब्दों में, इसका मतलब है कोई भी ऐसा कार्य जो किसी न्यायालय के अधिकार की अवहेलना, अनादर या उसको कमजोर करता हो।
न्यायालय की अवमानना के प्रकार (Types of Contempt of Court)
न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971, अवमानना को दो प्रकारों में वर्गीकृत करता है:
1. सिविल अवमानना (Civil Contempt)
अधिनियम की धारा 2(b) के तहत परिभाषित:
- किसी न्यायालय के किसी भी निर्णय, डिक्री, आदेश, निर्देश या रिट का जानबूझकर अवज्ञा (Wilful disobedience) करना; या
- किसी न्यायालय को दिए गए वचन (undertaking) का जानबूझकर उल्लंघन करना।
उदाहरण: किसी सरकारी परियोजना पर रोक लगाने के न्यायालय के आदेश को न मानना।
2. आपराधिक अवमानना (Criminal Contempt)
धारा 2(c) के तहत परिभाषित, किसी प्रकाशन या किसी कार्य के रूप में जो:
- किसी न्यायालय के अधिकार को स्कैंडलाइज़ (scandalises) करता है या कम करता है;
- न्यायिक कार्यवाही में पूर्वाग्रह (prejudices) पैदा करता है या हस्तक्षेप करता है; या
- किसी भी तरीके से न्याय के प्रशासन में बाधा डालता है।
उदाहरण: सार्वजनिक रूप से किसी न्यायाधीश को बिना सबूत के भ्रष्ट कहना या किसी न्यायालय के आदेश के खिलाफ अपमानजनक भाषा का प्रयोग करना।
क्या अवमानना नहीं माना जाता (What Does Not Amount to Contempt)
- न्यायिक कार्यवाही की निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग।
- किसी मामले की सुनवाई और निर्णय होने के बाद न्यायिक आदेश की निष्पक्ष आलोचना।
- 2006 के संशोधन ने “सत्य और सद्भाव (truth and good faith)” को भी एक वैध बचाव के रूप में पेश किया है, यदि बयान ईमानदारी से और सार्वजनिक हित के लिए दिया गया हो।
अवमानना के लिए दंड (Punishment for Contempt)
न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 के तहत:
- दंड में छह महीने तक का कारावास, या
- ₹2,000 तक का जुर्माना, या दोनों शामिल हो सकते हैं।
- 2006 के संशोधन में यह भी स्पष्ट किया गया कि दंड तभी लगाया जाना चाहिए जब कार्य न्याय की उचित कार्यवाही में पर्याप्त रूप से हस्तक्षेप करता हो।
न्यायिक व्याख्या और प्रमुख मामले (Judicial Interpretation and Landmark Cases)
- अश्विनी कुमार घोष बनाम अरबिंदा बोस (1952):
- माना गया कि किसी निर्णय की निष्पक्ष आलोचना अवमानना नहीं है, लेकिन दुर्भावनापूर्ण या अनुचित हमलों को अवमानना माना जा सकता है।
- अनिल रतन सरकार बनाम हीरक घोष (2002):
- इस बात पर जोर दिया गया कि अवमानना की शक्तियों का प्रयोग विरल रूप से (sparingly) और केवल उल्लंघन के स्पष्ट मामलों में ही किया जाना चाहिए।
- एम.वी. जयरंजन बनाम केरल उच्च न्यायालय (2015):
- उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करने को आपराधिक अवमानना माना गया था।
- षणमुगम @ लक्ष्मीनारायणन बनाम मद्रास उच्च न्यायालय (2025):
- पुष्टि की गई कि अवमानना शक्ति का उद्देश्य न्याय के प्रशासन की रक्षा करना है, न कि व्यक्तिगत न्यायाधीशों की।
अवमानना कार्यवाही की आलोचना (Criticism of Contempt Proceedings)
इसके महत्व के बावजूद, अवमानना कानून को महत्वपूर्ण आलोचना का सामना करना पड़ा है:
- औपनिवेशिक विरासत: “न्यायालय को स्कैंडलाइज़ करने” का प्रावधान ब्रिटिश-युग का अवशेष है, जिसे यूके ने 2013 में समाप्त कर दिया था, लेकिन यह भारत में जारी है।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा: यह न्यायपालिका की वैध आलोचना को हतोत्साहित कर सकता है और न्यायिक अतिरेक का कारण बन सकता है।
- अतिभारित न्यायपालिका: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में सैकड़ों अवमानना के मामले लंबित हैं, जिससे न्याय में और देरी होती है।
- स्पष्ट दिशानिर्देशों का अभाव: अवमानना शुरू करने की प्रक्रिया और सीमा स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है, जो अक्सर न्यायिक विवेक पर निर्भर करती है।
स्वतंत्रता और अधिकार के बीच संतुलन (The Balance Between Freedom and Authority)
एक लोकतंत्र में, भाषण की स्वतंत्रता सबसे मौलिक अधिकार है, लेकिन कानून के शासन के लिए न्यायिक गरिमा आवश्यक है। इसलिए, दोनों को सामंजस्य में सह-अस्तित्व में होना चाहिए।
- रचनात्मक और सूचित आलोचना न्यायपालिका को मजबूत करती है।
- दुर्भावनापूर्ण हमले जनता के विश्वास को कमजोर करते हैं और न्याय में बाधा डालते हैं।
कुंजी संतुलन है — लोकतांत्रिक असंतोष को दबाए बिना न्यायिक अधिकार को बनाए रखना।
आगे की राह (Way Forward)
- रचनात्मक आलोचना को बढ़ावा देना: न्यायिक निर्णयों के तर्कसंगत और साक्ष्य-आधारित विश्लेषण को प्रोत्साहित करना।
- स्पष्ट दिशानिर्देशों का संहिताकरण: आपराधिक अवमानना को लागू करने के लिए पारदर्शी प्रक्रियाएँ बनाना, जो प्राकृतिक न्याय और निष्पक्षता सुनिश्चित करें।
- समय-समय पर कानूनी समीक्षा: न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 की लोकतांत्रिक मूल्यों और वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं के साथ तालमेल बिठाने के लिए समीक्षा करना।
- न्यायिक संयम: न्यायालयों को अवमानना शक्तियों का प्रयोग केवल उन कार्यों पर ध्यान केंद्रित करते हुए करना चाहिए जो गंभीर रूप से न्याय में बाधा डालते हैं।
- जन जागरूकता: कानूनी साक्षरता अभियान नागरिकों को यह शिक्षित कर सकते हैं कि अवमानना क्या है और न्यायिक सम्मान का महत्व क्या है।
यूपीएससी प्रारंभिक परीक्षा अभ्यास प्रश्न
प्रश्न 1.भारत में न्यायालय की अवमानना (Contempt of Court) के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
- संविधान स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है कि न्यायालय की अवमानना क्या है।
- सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय दोनों ही अभिलेख न्यायालय (Courts of Record) हैं और उन्हें अपनी अवमानना के लिए दंड देने का अधिकार है।
- न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 में संशोधन के माध्यम से अवमानना के आरोपों के विरुद्ध सत्य और सद्भावना को वैध बचाव के रूप में जोड़ा गया।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
(A) केवल 1 और 2
(B) केवल 2 और 3
(C) केवल 1 और 3
(D) 1, 2 और 3
उत्तर: (B) केवल 2 और 3
व्याख्या:
- कथन 1 गलत है – संविधान अनुच्छेद 129 (सर्वोच्च न्यायालय) और अनुच्छेद 215 (उच्च न्यायालयों) के तहत अवमानना की शक्तियाँ प्रदान करता है, परंतु यह परिभाषित नहीं करता कि “अवमानना” क्या है। इसकी परिभाषा न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 में दी गई है।
- कथन 2 सही है – सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय, दोनों को “Courts of Record” का दर्जा प्राप्त है और उन्हें अपनी अवमानना के लिए दंड देने की संवैधानिक शक्ति प्राप्त है।
- कथन 3 सही है – न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 में 2006 के संशोधन द्वारा “सत्य और सद्भावना” (truth and good faith) को अवमानना के आरोपों के विरुद्ध वैध बचाव (valid defence) के रूप में जोड़ा गया।
प्रश्न 2.न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 के अंतर्गत, निम्नलिखित में से कौन-सा कार्य संभावित रूप से आपराधिक अवमानना (Criminal Contempt) के अंतर्गत आएगा?
(A) मुआवज़ा देने के न्यायालय के आदेश का पालन न करना।
(B) सर्वोच्च न्यायालय के किसी निर्णय की तर्कपूर्ण अकादमिक आलोचना प्रकाशित करना।
(C) बिना साक्ष्य के किसी न्यायाधीश पर सार्वजनिक रूप से पक्षपात का आरोप लगाना, जिससे न्यायपालिका में जनता का विश्वास कम हो।
(D) उच्च न्यायालय के किसी निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करना।
