मालदीव और लक्षद्वीप के आसपास समुद्र का स्तर पहले से अधिक तेज़ी से बढ़ रहा है: कोरल माइक्रोएटोल्स से मिली सीख

UPSC प्रासंगिकता

GS1 (भूगोल): जलवायु परिवर्तन का महासागरों और तटीय भू-आकृति पर प्रभाव।
GS3 (पर्यावरण): कोरल रीफ पारिस्थितिकी तंत्र, समुद्र-स्तर वृद्धि, अनुकूलन रणनीतियाँ।
निबंध: “बढ़ते समुद्र और डूबते द्वीप: 21वीं सदी की चुनौतियाँ।”  

चर्चा में क्यों?

सिंगापुर के नेशनल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पॉल केंच और नानयांग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक नया अध्ययन किया है। इसमें पाया गया कि मालदीव, लक्षद्वीप और चागोस द्वीप समूह के आसपास समुद्र का स्तर पहले से सोचे गए समय से भी जल्दी और ज़्यादा तेजी से बढ़ रहा है।
इसके लिए शोधकर्ताओं ने कोरल माइक्रोएटोल्स (Coral Microatolls) का इस्तेमाल किया, जो प्राकृतिक तौर पर समुद्र स्तर का रिकॉर्ड रखते हैं। इनके जरिए 1930 से 2019 तक का समुद्र-स्तर का इतिहास बनाया गया। इससे यह धारणा गलत साबित हुई कि समुद्र का स्तर केवल 1990 के बाद ही तेजी से बढ़ना शुरू हुआ था।

पृष्ठभूमि: समुद्र-स्तर वृद्धि को समझना

समुद्र का स्तर क्यों बढ़ रहा है?
पृथ्वी लगातार ग्लोबल वार्मिंग से गर्म हो रही है। जब महासागर इस गर्मी को सोखते हैं, तो दो चीज़ें होती हैं:

  • थर्मल एक्सपैंशन (Thermal Expansion): जब पानी गर्म होता है तो फैलता है। ठीक उसी तरह जैसे दूध उबलते समय ऊपर उठ जाता है।
  • बर्फ का पिघलना (Melting Ice): ग्लेशियर और ध्रुवीय बर्फ पिघलकर समुद्र में पानी की मात्रा और बढ़ा देते हैं।
     इन दोनों कारणों से दुनिया भर में समुद्र का स्तर ऊपर उठ रहा है।

इससे सबसे बड़ा खतरा किन्हें है?

  • मालदीव, तुवालु, किरिबाती जैसे देश।
  • भारत में लक्षद्वीप और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह।
  • क्यों? क्योंकि इनका ज़्यादातर ज़मीन का हिस्सा समुद्र से केवल 1–2 मीटर ऊँचाई पर है। यानी थोड़ी-सी भी समुद्र-स्तर वृद्धि इन्हें डुबो सकती है।

वैज्ञानिक समुद्र-स्तर कैसे मापते हैं?
पारंपरिक तौर पर दो तरीकों का इस्तेमाल हुआ:

  • ज्वारमापी यंत्र (Tide Gauges): ये ऐसे रूलर जैसे उपकरण होते हैं जिन्हें तटों पर लगाया जाता है और पानी की ऊँचाई रिकॉर्ड करते हैं। लेकिन इनका इस्तेमाल केवल 1950 के दशक से शुरू हुआ।
  • उपग्रह : 1990 के दशक से उपग्रह अंतरिक्ष से समुद्र-स्तर में होने वाले बदलाव को माप रहे हैं।

समस्या क्या है?
ये दोनों तरीके बहुत नए हैं। यानी ये हमें केवल पिछले 70–80 साल का डेटा ही दे पाते हैं। लेकिन 100 साल पहले समुद्र का स्तर कैसे बदल रहा था, इसकी जानकारी ये नहीं दे सकते।

नई विधि – प्रवाल सूक्ष्म-परमाणु

● वैज्ञानिकों ने हाल ही में एक नया तरीका अपनाया। उन्होंने प्रवाल सूक्ष्म-परमाणु का अध्ययन किया।

मुख्य अवधारणा: कोरल माइक्रोएटोल्स

1. परिभाषा
● कोरल माइक्रोएटोल्स वास्तव में चपटे (डिस्क के आकार वाले) प्रवाल कॉलोनी होते हैं।
● इनकी ऊर्ध्वाधर (ऊपर की ओर) वृद्धि समुद्र के सबसे निचले ज्वार स्तर तक ही सीमित रहती है।
● जब ये उस स्तर तक पहुँच जाते हैं, तो ऊपर नहीं बढ़ सकते (क्योंकि हवा में आने से ये मर जाएँगे)।
 इसे ऐसे समझिए जैसे एक गिलास में पानी भरते समय, पानी किनारे तक पहुँचकर ऊपर नहीं जाता बल्कि फैलने लगता है। उसी तरह ये कोरल भी ऊपर नहीं बढ़ते, बल्कि किनारों की ओर फैलते जाते हैं।

2. प्राकृतिक ज्वारमापी यंत्र की तरह काम
● क्योंकि ये सबसे निचले ज्वार स्तर पर ही ऊर्ध्वाधर वृद्धि रोक देते हैं, इसलिए इनका चपटा ऊपरी हिस्सा समुद्र-स्तर का “मार्कर” बन जाता है।
● समय के साथ, जब समुद्र का स्तर ऊपर या नीचे होता है, तो इनका आकार उस बदलाव को अपने भीतर दर्ज कर लेता है।
 आसान शब्दों में: कोरल माइक्रोएटोल्स = प्रकृति के ज्वारमापी यंत्र, जो समुद्र-स्तर का इतिहास बताते हैं, वो भी उस समय से बहुत पहले जब सैटेलाइट या टाइड-मीटर बने ही नहीं थे।

3. दीर्घायु
● माइक्रोएटोल्स कई दशकों से लेकर सदियों तक जीवित रह सकते हैं।
● ये किनारों की ओर (Lateral) बढ़ते हैं और हर साल नई परत बनाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे पेड़ के तने में सालाना वृत्त बनते हैं।
● ये सालाना परतें उस समय के पर्यावरण और समुद्र-स्तर की जानकारी अपने भीतर संजोए रखती हैं।
 इसलिए इन्हें अक्सर वैज्ञानिक “महासागर के वृक्ष-वृत्त (Tree Rings of the Ocean)” कहते हैं।

4. वैज्ञानिक उपयोग
वैज्ञानिक इन माइक्रोएटोल्स को आधुनिक तकनीकों से पढ़ते हैं:
एक्स-रे बैंडिंग (X-ray Banding): सालाना परतों को साफ़ दिखाती है।
यूरेनियम-थोरियम डेटिंग (Uranium-Thorium Dating): प्रवाल की परतों की उम्र बहुत सटीकता से बताती है (कभी-कभी सिर्फ़ ±2 साल का अंतर)।

इन दोनों तरीकों को मिलाकर वैज्ञानिक समुद्र-स्तर में हुए बदलावों को 100–200 साल पीछे तक समझ सकते हैं — यानी टाइड-गेज और सैटेलाइट के दायरे से कहीं ज़्यादा पुराना डेटा मिल जाता है।

 कोरल माइक्रोएटोल्स ने हिंद महासागर क्षेत्र में लगभग 90 साल पुराने समुद्र-स्तर रिकॉर्ड जोड़कर हमारी समझ को और व्यापक बनाया है। यह जानकारी छोटे द्वीप देशों और भारत के द्वीप क्षेत्रों (जैसे लक्षद्वीप और अंडमान) के लिए बेहद अहम है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन इनके अस्तित्व पर ही खतरा बनकर खड़ा है।

अध्ययन से प्राप्त आँकड़े और निष्कर्ष

1. समुद्र-स्तर वृद्धि की दर (1930–2019)
वैज्ञानिकों ने मालदीव के महुटिगला क्षेत्र में पाए गए पोराइट्स माइक्रोएटोल (Porites Microatoll) का अध्ययन करके 90 वर्षों का समुद्र-स्तर इतिहास बनाया।
● 1930–1959 → समुद्र स्तर धीरे-धीरे बढ़ा, केवल 1.0 – 1.84 मिमी/वर्ष
● 1960–1992 → बढ़त तेज़ हुई, लगभग 2.76 – 4.12 मिमी/वर्ष
● 1990–2019 → और तेज़, लगभग 3.91 – 4.87 मिमी/वर्ष
 कुल 90 साल में समुद्र का स्तर लगभग 30 सेमी (0.3 मीटर) बढ़ा।

2. वृद्धि की गति का समय
● पहले वैज्ञानिक मानते थे कि समुद्र-स्तर की तेज़ वृद्धि 1990 के दशक में शुरू हुई।
● लेकिन कोरल के रिकॉर्ड बताते हैं कि यह तेज़ी 1950 के दशक के अंत से ही शुरू हो चुकी थी।
इसका मतलब है कि मानव-जनित जलवायु प्रभाव (द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उद्योगों से बढ़ते उत्सर्जन) का असर हमारी सोच से पहले ही दिखने लगा था।

3. क्षेत्रीय संदर्भ
मालदीव, लक्षद्वीप और चागोस द्वीप समूह में:
● 1959 से अब तक → समुद्र-स्तर लगभग 3.2 मिमी/वर्ष की दर से बढ़ा।
● पिछले 20–30 वर्षों में → यह और बढ़कर लगभग 4 मिमी/वर्ष हो गया।
 खतरा यह है कि इन द्वीपों की ऊँचाई समुद्र से केवल 1–2 मीटर ही ऊपर है। अगर कुछ और दशकों तक यही दर जारी रही तो इन द्वीपों का बड़ा हिस्सा डूब सकता है।

4. कोरल में संरक्षित जलवायु संकेत
कोरल माइक्रोएटोल्स केवल समुद्र-स्तर ही नहीं, बल्कि जलवायु तनाव  की घटनाएँ भी दर्ज करते हैं:
एल-नीनो (El Niño): गर्म पानी, कोरल ब्लीचिंग → विकास में रुकावट के रूप में दर्ज।
नकारात्मक भारतीय महासागर द्विध्रुव (Negative IOD): समुद्री धाराओं में बदलाव और कोरल पर दबाव → भी रिकॉर्ड होता है।
18.6-वर्षीय चंद्र नोडल चक्र: यह प्राकृतिक चक्र ज्वार को हल्का बदलता है और कोरल इसके प्रभाव को भी दर्ज करते हैं।
 इससे साबित होता है कि कोरल एक जलवायु अभिलेख (Climate Archive) की तरह हैं, जो समुद्र और वायुमंडल से जुड़ी कई जानकारियाँ अपने भीतर सुरक्षित रखते हैं।

ये निष्कर्ष क्यों महत्वपूर्ण हैं (Why These Findings Matter)

1. पुराने अनुमानों को चुनौती
● अब तक वैज्ञानिक और नीति-निर्माता मानते थे कि समुद्र-स्तर में गंभीर वृद्धि 1990 के दशक से शुरू हुई, जब ग्लोबल वार्मिंग तेज़ हुई।
● लेकिन इस नए अध्ययन (कोरल माइक्रोएटोल्स के आधार पर) से पता चलता है कि समुद्र-स्तर की तेज़ी 1950 के दशक के अंत से ही शुरू हो गई थी।
● इसका मतलब है कि जलवायु परिवर्तन का असर हमारी सोच से कहीं पहले दिखने लगा था और अब तक बने मॉडल और खतरे के आकलन ज़्यादा आशावादी साबित हुए।

2. क्षेत्रीय भिन्नता का खुलासा
● वैश्विक औसत समुद्र-स्तर वृद्धि = लगभग 3.0 मिमी/वर्ष
● लेकिन मध्य हिंद महासागर (मालदीव, लक्षद्वीप, चागोस) में = लगभग 3.3 मिमी/वर्ष
● थोड़ा-सा अंतर भी बड़ा असर डाल सकता है, क्योंकि ये द्वीप समुद्र से मुश्किल से 1–2 मीटर ऊपर हैं।
● यह साबित करता है कि क्षेत्रीय स्तर पर समुद्र-स्तर वृद्धि वैश्विक औसत से ज़्यादा हो सकती है, इसलिए अनुकूलन योजनाएँ हर क्षेत्र के हिसाब से अलग बनानी होंगी।

3. अनुकूलन के लिए निहितार्थ
● अगर समुद्र 1950 के दशक से ही तेज़ी से बढ़ रहा है, तो द्वीप-देशों को पिछले 70+ सालों से खतरा है, न कि केवल पिछले 30 सालों से।
● इसका मतलब है कि तटीय सुरक्षा, लोगों का पुनर्वास और जलवायु-लचीला अवसंरचना जैसी योजनाएँ पहले से ही कई दशकों पीछे चल रही हैं।
● मालदीव जैसे देशों या लक्षद्वीप जैसे भारतीय द्वीपों के लिए यह केवल पर्यावरण का मुद्दा नहीं, बल्कि अस्तित्व का सवाल है।

मालदीव, लक्षद्वीप और तटीय भारत पर प्रभाव :

1. तटीय कटाव (Coastal Erosion)
● समुद्र-स्तर तेजी से बढ़ने पर तट पीछे खिसकते जाते हैं।
● लक्षद्वीप के द्वीप सबसे ज़्यादा संवेदनशील हैं, क्योंकि ये रेत और कोरल से बने हैं — दोनों ही आसानी से कटाव का शिकार हो जाते हैं।
● पहले से किए गए अध्ययनों में पाया गया है कि लक्षद्वीप के कई द्वीपों का आकार सिकुड़ रहा है, जिससे रहने और खेती योग्य ज़मीन घट रही है।
● इसका असर सिर्फ़ मकानों और खेती पर ही नहीं पड़ता, बल्कि चक्रवात और समुद्री तूफानों के समय जोखिम और भी बढ़ जाता है।

2. आवास पर खतरा
● मालदीव की औसत ऊँचाई समुद्र से केवल 1.5 मीटर ऊपर है, जो इसे दुनिया के सबसे ख़तरे में पड़े देशों में से एक बनाता है।
● भारत के लक्षद्वीप द्वीपों जैसे मिनिकॉय और कवरेत्ती की ऊँचाई भी सिर्फ़ 1–2 मीटर है, जिससे वे भी समान ख़तरों का सामना कर रहे हैं।
● इससे एक बुनियादी सवाल उठता है: क्या आने वाले 50–100 वर्षों में ये द्वीप रहने लायक रह पाएँगे?

3. कोरल ब्लीचिंग और रीफ का टूटना
● समुद्र-स्तर बढ़ने से कोरल रीफ तक पहुँचने वाली धूप कम हो जाती है।
● कोरल अपनी सहजीवी शैवाल (Algae) के ज़रिए प्रकाश संश्लेषण पर निर्भर रहते हैं।
● कम रोशनी + गर्म पानी = कोरल ब्लीचिंग (Coral Bleaching)।
● अगर यह सिलसिला जारी रहा तो रीफ तंत्र (Reef Ecosystem) ढह जाएगा, और द्वीपों को लहरों और कटाव से बचाने वाली प्राकृतिक दीवार भी खत्म हो जाएगी।
● यह एक दुष्चक्र बना देता है: समुद्र-स्तर बढ़ने से रीफ को नुकसान → रीफ कमजोर होते हैं → कटाव तेज़ होता है → ज़मीन और जल्दी खत्म होती है।

4. सामाजिक-आर्थिक जोखिम

(i) मत्स्य संसाधन का नुकसान :
● मालदीव और लक्षद्वीप अपनी जीविका और भोजन के लिए ट्यूना और रीफ मछलियों पर बहुत निर्भर हैं।
● रीफ के नष्ट होने और समुद्री परिस्थितियों के बदलने से मछलियों की संख्या घटेगी, जिससे खाद्य सुरक्षा और आजीविका दोनों प्रभावित होंगे।

(ii) पर्यटन पर असर :
● मालदीव और लक्षद्वीप की अर्थव्यवस्था का आधार पर्यटन है — सुंदर बीच, कोरल डाइविंग और रिसॉर्ट्स।
● लेकिन अगर द्वीप सिकुड़ गए और कोरल मर गए तो पर्यटन उद्योग ढह जाएगा।

(iii) जलवायु-जनित पलायन :
● जैसे-जैसे ज़मीन रहने योग्य नहीं रहेगी, लोगों को पलायन करना पड़ेगा।
● मालदीव ने तो सबसे बुरे हालात में अपने नागरिकों को बसाने के लिए श्रीलंका या ऑस्ट्रेलिया में ज़मीन ख़रीदने की बात तक की है।
● भारत के लिए भी स्थिति चुनौतीपूर्ण हो सकती है, क्योंकि लक्षद्वीप से मुख्यभूमि तटीय इलाकों की ओर पलायन नए सामाजिक और आर्थिक दबाव पैदा करेगा।

 समुद्र-स्तर वृद्धि केवल पर्यावरण की समस्या नहीं है, बल्कि यह विकास, अर्थव्यवस्था और मानव सुरक्षा का भी मुद्दा है — खासकर मालदीव, लक्षद्वीप और तटीय भारत के लिए।

निगरानी का ऐतिहासिक संदर्भ

1. TOGA कार्यक्रम (1985–1994)
ट्रॉपिकल ओशन ग्लोबल एटमॉस्फियर (TOGA) कार्यक्रम हिंद महासागर की जलवायु में भूमिका का अध्ययन करने के लिए किए गए शुरुआती बड़े अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में से एक था।
● इसके तहत लंबी अवधि की निगरानी प्रणाली बनाई गई — मुख्य रूप से ज्वारमापी यंत्र (Tide Gauges) और समुद्री बुआ (Ocean Buoys) — जिनसे समुद्र-स्तर, धाराओं और तापमान का रिकॉर्ड रखा गया।
यह क्षेत्र के लिए व्यवस्थित महासागरीय रिकॉर्ड तैयार करने की दिशा में एक बड़ा कदम था।

2. वैश्विक समुद्र-स्तर निगरानी प्रणाली (GLOSS)
● TOGA के बाद ग्लोबल सी-लेवल ऑब्ज़र्विंग सिस्टम (GLOSS) ने इस मिशन को आगे बढ़ाया।
● इसने दुनिया भर में, जिसमें हिंद महासागर भी शामिल है, ज्वारमापी यंत्रों का नेटवर्क बनाए रखा।
● GLOSS से मिले आँकड़ों ने वैज्ञानिकों को वैश्विक समुद्र-स्तर वृद्धि के अनुमान बनाने में मदद की।

3. भारत के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की रिपोर्ट
● भारत के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) के अनुसार हिंद महासागर में समुद्र-स्तर लगभग 3.3 मिमी/वर्ष की दर से बढ़ रहा है, जो वैश्विक औसत 3.0 मिमी/वर्ष से थोड़ा अधिक है।
● यह दिखाता है कि क्षेत्रीय कारक जैसे समुद्री धाराएँ, हवाएँ और गर्मी के हॉटस्पॉट, हिंद महासागर को विशेष रूप से संवेदनशील बनाते हैं।

4. निगरानी में कमी
● TOGA और GLOSS के बावजूद, मध्य उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर (मालदीव, लक्षद्वीप, चागोस क्षेत्र) की निगरानी बहुत सीमित रही।
● अधिकांश डेटा केवल 1950 के दशक से ही उपलब्ध है, इससे पहले का समुद्र-स्तर इतिहास गायब था।
 यही वह जगह है जहाँ नए कोरल माइक्रोएटोल अध्ययन ने बड़ी भूमिका निभाई — इसने लगभग 90 साल का अंतर भर दिया और ऐसे दीर्घकालिक तथ्य सामने लाए जो उपकरण नहीं दिखा पाए थे।

वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर उठाए गए कदम :

1. पेरिस समझौता (2015)
● यह संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के तहत सबसे महत्वपूर्ण वैश्विक जलवायु संधि है।
● इसमें देशों ने सहमति दी कि ग्लोबल वार्मिंग को 2°C से नीचे और आदर्श रूप से 1.5°C तक सीमित रखना है (औद्योगिक क्रांति से पहले के स्तर की तुलना में)।
● समुद्र-स्तर वृद्धि से संबंध:

  • कम तापमान वृद्धि = ग्लेशियर और बर्फ की चादरों का धीमा पिघलना।
  • कम गर्मी = महासागरों का कम फैलाव (Thermal Expansion)।
     यानी पेरिस समझौता समुद्र-स्तर वृद्धि के खिलाफ एक अप्रत्यक्ष सुरक्षा कवच है।

2. भारत का तटीय मिशन (NAPCC)
● भारत ने 2008 में राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (NAPCC) शुरू की।
● इसके तहत एक राष्ट्रीय तटीय मिशन है, जिसके उद्देश्य हैं:

  • तटीय पारिस्थितिक तंत्र (मैंग्रोव, कोरल रीफ, बीच) की रक्षा।
  • तटीय सुरक्षा को मज़बूत करना (समुद्री दीवारें, बायो-शील्ड)।
  • मछुआरों और तटीय समुदायों की आजीविका की रक्षा।
    ● भारत के पास 7,500 किमी लंबा तट और संवेदनशील द्वीप क्षेत्र हैं, इसलिए यह मिशन बेहद अहम है।

3. मालदीव की जलवायु कूटनीति
● मालदीव दुनिया का सबसे निचले स्तर पर स्थित देश है (औसत ऊँचाई: 1.5 मीटर)।
● यह AOSIS (Alliance of Small Island States) के ज़रिए द्वीपीय देशों की वैश्विक आवाज़ बना है।
● मालदीव लगातार UN जलवायु वार्ताओं में समुद्र-स्तर वृद्धि को लेकर चेतावनी देता रहा है और इसे अस्तित्व का संकट बताता है।
 इसकी कूटनीति केवल प्रतीकात्मक नहीं है, बल्कि यह बड़े प्रदूषक देशों पर कड़े जलवायु कदम उठाने का दबाव डालती है।

4. शोध में कमियाँ
● प्रगति के बावजूद, दीर्घकालिक निगरानी में अभी भी बड़ी कमियाँ हैं।
● उदाहरण:

  • ज्वारमापी यंत्र और उपग्रह हमें केवल 70 साल या उससे कम का डेटा देते हैं।
  • मध्य हिंद महासागर (मालदीव, लक्षद्वीप) में निगरानी बहुत कम रही है, जिससे भविष्यवाणी सीमित रही।
    ● यही कारण है कि कोरल माइक्रोएटोल अध्ययन इतना मूल्यवान है — यह लगभग 90 साल का अतिरिक्त डेटा देता है और बेहतर अनुकूलन योजनाएँ बनाने में मदद करता है।

आगे की राह :

1. निगरानी प्रणालियों को मज़बूत करना
● हिंद महासागर में ज्वारमापी यंत्र (Tide Gauges) और उपग्रह कवरेज का विस्तार किया जाए ताकि समुद्र-स्तर में बदलाव को और सटीकता से ट्रैक किया जा सके।
● मालदीव, लक्षद्वीप, अंडमान और सेशेल्स में कोरल माइक्रोएटोल अध्ययन को शामिल किया जाए ताकि एक लंबी अवधि का क्षेत्रीय रिकॉर्ड तैयार हो सके।
 इससे नीति-निर्माताओं को समय से पहले चेतावनी मिलेगी और अगले 50–100 वर्षों के लिए वैज्ञानिक अनुमान लगाना आसान होगा।

2. अनुकूलन उपाय
जलवायु-लचीला ढाँचा :

  • मालदीव और लक्षद्वीप में तटीय सुरक्षा दीवारें, ऊँचे घर और तैरते ढाँचे (Floating Infrastructure) तुरंत ज़रूरी हैं।
  • उदाहरण: मालदीव की राजधानी माले में जापान की मदद से समुद्री दीवार बनाई गई है। ऐसे ही कदम अन्य जगहों पर भी ज़रूरी हैं।

पारिस्थितिक-आधारित अनुकूलन :

  • मैंग्रोव पुनर्स्थापन (Mangrove Restoration) समुद्री लहरों और कटाव के खिलाफ प्राकृतिक ढाल का काम करता है।
  • कोरल रीफ का संरक्षण इन द्वीपों को लहरों से बचाता है और मत्स्य संसाधनों को भी सहारा देता है।
     “ग्रे इंफ्रास्ट्रक्चर” (दीवारें) और “ग्रीन इंफ्रास्ट्रक्चर” (मैंग्रोव, रीफ) को मिलाकर किए गए उपाय ज़्यादा टिकाऊ साबित होंगे।

3. नीतिगत सहयोग
● भारत को राष्ट्रीय तटीय क्षेत्र प्रबंधन कार्यक्रम (NCZMP) के तहत तटीय संवेदनशीलता मैपिंग को प्राथमिकता देनी चाहिए।
● इसका मतलब है यह पहचानना कि कौन-से गाँव, कस्बे और द्वीप सबसे ज़्यादा जोखिम में हैं और पहले से पुनर्वास व आजीविका योजनाएँ बनाना।
 यह सक्रिय दृष्टिकोण भविष्य में मानव और आर्थिक नुकसान को कम करेगा।

4. क्षेत्रीय सहयोग
● भारत को मालदीव, श्रीलंका और सेशेल्स के साथ इंडियन ओशन रिम एसोसिएशन (IORA) के तहत मिलकर काम करना चाहिए।
● संयुक्त प्रयासों में शामिल हो सकते हैं:

  • समुद्र-स्तर वृद्धि और तूफ़ानों के लिए साझा अर्ली-वार्निंग सिस्टम
  • महासागर के गर्म होने और कोरल संरक्षण पर क्षेत्रीय शोध केंद्र
     जलवायु परिवर्तन क्षेत्रीय खतरा है, इसलिए प्रतिक्रिया भी क्षेत्रीय और सहयोगात्मक होनी चाहिए।

5. जलवायु कूटनीति
● भारत इस नए वैज्ञानिक प्रमाण (कोरल अध्ययन) का इस्तेमाल वैश्विक जलवायु वार्ताओं में कर सकता है।
● हिंद महासागर क्षेत्र की विशेष संवेदनशीलता को उजागर करके भारत और मालदीव मिलकर यह दबाव बना सकते हैं:

  • वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन में और कटौती।
  • अनुकूलन परियोजनाओं के लिए ज़्यादा जलवायु वित्त (Climate Finance)।
     इससे भारत की स्थिति UNFCCC, COP सम्मेलनों और G20 जैसे मंचों पर और मज़बूत होगी।

निष्कर्ष

1930–2019 का कोरल माइक्रोएटोल अध्ययन हमारी समुद्र-स्तर वृद्धि की समझ को पूरी तरह बदल देता है। इससे साबित होता है कि मालदीव, लक्षद्वीप और चागोस जैसे क्षेत्र अपेक्षा से कहीं पहले से ही खतरे का सामना कर रहे हैं। पिछले 60 वर्षों में समुद्र-स्तर 30–40 सेमी बढ़ चुका है, जिससे क्षेत्र की पारिस्थितिक और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा पर गहरा संकट है।

UPSC अभ्यर्थियों के लिए यह केस स्टडी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह :

  • जलवायु नीति में वैज्ञानिक प्रमाणों की अहमियत,
  • पर्यावरण और भू-राजनीति का आपसी संबंध,
  • और संवेदनशील तटीय क्षेत्रों में अनुकूलन शासन (Adaptive Governance) की तत्काल आवश्यकता को दिखाती है

नोट- अधिक जानकारी के लिए, ग्रेट बैरियर रीफ: रिकॉर्ड कोरल क्षति और इसके वैश्विक प्रभाव पर 8 अगस्त का लेख भी पढ़ें।

UPSC प्रारंभिक परीक्षा अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1. मालदीव में कोरल माइक्रोएटोल अध्ययन से पता चला है कि समुद्र-स्तर में वृद्धि निम्नलिखित से प्रभावित हुई है:

1. अल नीनो घटनाएँ

2. नकारात्मक हिंद महासागर द्विध्रुव (IOD) घटनाएँ

3. 18.6-वर्षीय चंद्र नोडल चक्र

4. क्षेत्र की टेक्टोनिक अस्थिरता

उपरोक्त कारकों में से कौन से कारक पहचाने गए?

 (A) केवल 1, 2 और 3

 (B) केवल 2, 3 और 4

 (C) केवल 1 और 4

 (D) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (A) केवल 1, 2 और 3

(यह क्षेत्र टेक्टोनिक रूप से स्थिर था, इसलिए टेक्टोनिक अस्थिरता कोई कारक नहीं थी।)

प्रश्न 2. प्रवाल सूक्ष्म एटोल के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:

1. ये डिस्क के आकार की प्रवाल बस्तियाँ हैं जिनकी ऊपर की ओर वृद्धि निम्नतम ज्वार की ऊँचाई द्वारा प्रतिबंधित होती है।

2. इनकी ऊपरी सतह समय के साथ क्षेत्र में सबसे कम जल स्तर को दर्शाती है।

3. ये दशकों या सदियों तक के दीर्घकालिक समुद्र-स्तर के रिकॉर्ड प्रदान कर सकते हैं।

ऊपर दिए गए कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?

(A) केवल 1 और 2

 (B) केवल 2 और 3

 (C) केवल 1 और 3

 (D) 1, 2 और 3

उत्तर: (D) 1, 2 और 3

UPSC मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न

प्रश्न: “मालदीव में प्रवाल सूक्ष्म एटोल के अध्ययन से पता चला है कि हिंद महासागर में समुद्र-स्तर में वृद्धि पहले के अनुमान से पहले शुरू हो गई है।” भारत और व्यापक हिंद महासागर क्षेत्र के लिए इस खोज के महत्व पर चर्चा कीजिए। (उत्तर 250 शब्दों में दें)

SOURCE- THE HINDU

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