भारत के पूर्व-अपराध ढाँचे का ख़तरा: निवारक निरोध पर पुनर्विचार

यूपीएससी प्रासंगिकता:

  • जीएस पेपर II: संविधान (अनुच्छेद 14, 19, 21, 22), मौलिक अधिकार, न्यायिक समीक्षा।
  • जीएस पेपर IV: शासन में नैतिकता, कार्यपालिका का अतिरेक, और विधि का शासन।

ख़बरों में क्यों?

निवारक निरोध (Preventive Detention) एक संवैधानिक उपकरण है जो राज्य को किसी व्यक्ति को अपराध करने से पहले हिरासत में लेने की अनुमति देता है। हाल ही में, धन्या एम. बनाम केरल राज्य (2025) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने केरल असामाजिक गतिविधियाँ (निवारण) अधिनियम, 2007 (KAAPA) के तहत जारी एक निवारक निरोध आदेश को रद्द कर दिया। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसी शक्तियों का प्रयोग संविधान के सुरक्षा उपायों का सख्त पालन करते हुए, विरल रूप से ही किया जाना चाहिए।

यह फ़ैसला क़ानून और व्यवस्था तथा सार्वजनिक व्यवस्था के बीच के अंतर को उजागर करता है और निवारक निरोध का दुरुपयोग या न्यायिक प्रक्रियाओं से बचने के लिए प्रयोग होने के खतरे की चेतावनी देता है।

पृष्ठभूमि

निवारक निरोध का भारत में लंबा इतिहास है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत बंगाल विनियमन 1818 से इसका उपयोग मुख्य रूप से असंतोष को दबाने और नियंत्रण बनाए रखने के लिए किया गया।

  • भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने प्रांतीय विधायिकाओं को “सार्वजनिक व्यवस्था” के हित में निवारक निरोध कानून बनाने और सशक्त बनाने का अधिकार दिया।
  • स्वतंत्र भारत में, इन शक्तियों को स्थायी शासन उपकरण के रूप में बनाए रखा गया।
  • संविधान सभा की बहसों में यह विवादास्पद था। कुछ सदस्यों ने कार्यपालिका के अतिरेक की चेतावनी दी, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता और सांप्रदायिक तनाव ने इसे सीमित वैधता दी।

अनुच्छेद 22 को एक दोमुखी प्रावधान के रूप में तैयार किया गया था। एक तरफ यह उचित प्रक्रिया का वादा करता है, वहीं दूसरी तरफ यह निवारक निरोध को कुछ सुरक्षा उपायों से बाहर रखता है।

ए.के. गोपालन मामला (1950) ने यह अलगाव मजबूत किया कि निवारक निरोध केवल अनुच्छेद 22 (3)-(7) के तहत परखा जा सकता है, जिससे नज़रबंद व्यक्ति अन्य मौलिक अधिकारों से कट जाते हैं।

चुनौतियाँ और मुद्दे

हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने चेतावनी दी है, KAAPA जैसे कानून अभी भी अत्यधिक व्यापक हैं। “गुंडा” या “रोड़ी” जैसे अस्पष्ट शब्द राज्य को कानून और व्यवस्था के मामलो को सार्वजनिक खतरे के रूप में व्याख्यायित करने की अनुमति देते हैं।

मुख्य चुनौतियाँ:

  1. कार्यपालिका का अतिरेक: अधिकारी पर्याप्त सबूत के बिना व्यक्तियों को लंबी अवधि के लिए हिरासत में ले सकते हैं।
  2. मौलिक अधिकारों का क्षरण: अनुच्छेद 14, 19, और 21 के अधिकार अक्सर छिप जाते हैं।
  3. प्रक्रियात्मक कमजोरियाँ: सलाहकार बोर्ड और न्यायिक समीक्षा सीमित सुरक्षा प्रदान करते हैं।
  4. दुरुपयोग की संभावना: विशेषकर असंतोष, विरोध प्रदर्शन, या राजनीतिक मामलों में।

न्यायिक व्याख्याएँ

  • धन्या एम. बनाम केरल राज्य (2025): निवारक निरोध अंतिम उपाय होना चाहिए, और नियमित आपराधिक कानून का विकल्प नहीं बन सकता।
  • एस.के. नज़नीन बनाम तेलंगाना (2023): केवल कानून और व्यवस्था के मुद्दों पर निरोध उचित नहीं; सार्वजनिक व्यवस्था और कानून व्‍यवस्था के बीच अंतर स्पष्ट किया गया।
  • रेखा बनाम तमिलनाडु (2011) और बंका स्नेहा शीला बनाम तेलंगाना (2021): निवारक निरोध अनुच्छेद 21 का अपवाद है और दुर्लभ परिस्थितियों में ही लागू होना चाहिए।
  • ए.के. रॉय बनाम भारत संघ (1982): अदालतों ने निवारक निरोध को मौलिक अधिकारों के संरक्षण से बाहर माना और मेनका गांधी सिद्धांत का विस्तार नहीं किया।

ये फ़ैसले व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कार्यपालिका की असाधारण शक्तियों के बीच तनाव दिखाते हैं, जिसे एक “संवैधानिक बरमूडा त्रिकोण” कहा जा सकता है।

नैतिक और कानूनी दुविधाएँ

यह बहस स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म “माइनॉरिटी रिपोर्ट” के परिदृश्य से मेल खाती है, जहाँ पुलिस भविष्यवाणी के आधार पर व्यक्तियों को हिरासत में लेती है।

भारत में भी निवारक निरोध अधिकारी की व्यक्तिपरक धारणा पर निर्भर करता है, जिससे उचित प्रक्रिया, निर्दोषता की अवधारणा, और न्यायिक जाँच दरकिनार हो सकती है।

मानव व्यवहार की भविष्यवाणी में अनिश्चितता इस खतरे को और बढ़ा देती है। निवारक निरोध सख्त लक्षित सुरक्षा उपाय बनने के बजाय दुरुपयोग, राजनीतिक पूर्वाग्रह और प्रशासनिक सुविधाओं के प्रति संवेदनशील बन जाता है।

आगे की राह

  1. असाधारण खतरों तक सीमित करें: जैसे आतंकवाद, अंतर्राष्ट्रीय ड्रग कार्टेल, संगठित अपराध।
  2. प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को मजबूत करें: न्यायिक समीक्षा, सलाहकार बोर्ड और समय पर सुनवाई सुनिश्चित करें।
  3. आधुनिक अधिकार न्यायशास्त्र के साथ संरेखण: ए.के. गोपालन और ए.के. रॉय फ़ैसलों पर पुनर्विचार करें।
  4. सबूत-आधारित प्रवर्तन बढ़ाएँ: व्यक्तिपरक आकलन पर निर्भरता कम करें।
  5. नियमित प्रशासनिक उपयोग रोकें: असंतोष को दबाने या न्यायिक प्रक्रियाओं से बचने के लिए निवारक निरोध न हो।

निष्कर्ष

निवारक निरोध दोधारी तलवार है। इसका उद्देश्य सार्वजनिक व्यवस्था की रक्षा करना है, लेकिन यह अक्सर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को खतरे में डाल देता है।

धन्या एम. जैसे न्यायिक फ़ैसले आशा देते हैं, लेकिन दुरुपयोग रोकने के लिए प्रणालीगत सुधार आवश्यक हैं। सख्त सीमाओं के बिना, भारत का पूर्व-अपराध ढाँचा स्वतंत्रता, समानता और उचित प्रक्रिया के संवैधानिक मूल्यों को कमजोर कर सकता है—ठीक उन्हीं सिद्धांतों को, जिनकी इसे रक्षा करनी चाहिए।

यूपीएससी प्रारंभिक परीक्षा – निवारक निरोध (Preventive Detention) अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1:भारतीय संविधान के तहत निवारक निरोध के बारे में निम्नलिखित में से कौन सा/से कथन सही है/हैं?
  1. अनुच्छेद 22(3)–(7) बिना मुकदमे के अधिकतम 12 महीने की अवधि के लिए निरोध की अनुमति देते हैं।
  2. निवारक निरोध कानून केवल सार्वजनिक व्यवस्था के खतरों पर लागू किए जा सकते हैं, न कि महज कानून और व्यवस्था के मुद्दों पर।
  3. अनुच्छेद 22 के तहत निवारक निरोध की न्यायिक समीक्षा पूरी तरह से वर्जित है।

विकल्प:
 A. केवल 1 और 2
 B. केवल 2 और 3
 C. 1, 2, और 3
 D. केवल 1

उत्तर: A. केवल 1 और 2

व्याख्या:

  • अनुच्छेद 22(3) अधिकतम 12 महीने तक निवारक निरोध की अनुमति देता है।
  • निवारक निरोध केवल सार्वजनिक व्यवस्था के खतरों के लिए होना चाहिए।
  • न्यायिक समीक्षा पूरी तरह वर्जित नहीं है; अदालत प्रक्रियात्मक अनुपालन और सुरक्षा उपायों की जाँच कर सकती है।
प्रश्न 2:भारत में निवारक निरोध की ऐतिहासिक उत्पत्ति के बारे में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
  1. इसकी उत्पत्ति भारत में बंगाल विनियमन 1818 के तहत हुई थी।
  2. भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने प्रांतीय विधायिकाओं को “सार्वजनिक व्यवस्था” के हित में निवारक निरोध कानून बनाने का अधिकार दिया।
  3. ब्रिटेन ने शांति काल में निवारक निरोध का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया।

विकल्प:
 A. केवल 1 और 2
 B. केवल 2 और 3
 C. 1, 2, और 3
 D. केवल 1

उत्तर: A. केवल 1 और 2

व्याख्या:

  • निवारक निरोध बंगाल विनियमन (1818) के तहत शुरू हुआ और 1935 के अधिनियम द्वारा सशक्त किया गया।
  • ब्रिटेन ने इसका उपयोग मुख्य रूप से युद्धकाल में किया, शांति काल में नहीं।
प्रश्न 3:निम्नलिखित में से किस सर्वोच्च न्यायालय मामले में यह माना गया कि निवारक निरोध कानून अनुच्छेद 21 के अपवाद हैं और इसका उपयोग केवल दुर्लभ परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए?

A. मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978)
 B. ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950)
 C. रेखा बनाम तमिलनाडु राज्य (2011)
 D. ए.के. रॉय बनाम भारत संघ (1982)

उत्तर: C. रेखा बनाम तमिलनाडु राज्य (2011)

व्याख्या:

  • रेखा और बंका स्नेहा शीला मामलों ने पुष्टि की कि निवारक निरोध एक असाधारण शक्ति है, न कि नियमित उपकरण।
प्रश्न 4:भारतीय संवैधानिक कानून में “गोल्डन ट्राइएंगल” (Golden Triangle) शब्द अनुच्छेदों के किस समूह को संदर्भित करता है?

A. अनुच्छेद 14, 19, और 21
 B. अनुच्छेद 22, 19, और 21
 C. अनुच्छेद 14, 22, और 21
 D. अनुच्छेद 12, 19, और 21

उत्तर: A. अनुच्छेद 14, 19, और 21

व्याख्या:

  • ये अनुच्छेद समानता, स्वतंत्रता और जीवन/व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हैं।
  • इन्हें मौलिक अधिकारों की मूल सुरक्षा माना जाता है।
प्रश्न 5:ए.के. रॉय बनाम भारत संघ (1982) मामले के बारे में निम्नलिखित में से कौन सा कथन सही है?

A. न्यायालय ने निवारक निरोध पर मेनका गांधी (1978) के सिद्धांतों को लागू किया।
B. न्यायालय ने माना कि निवारक निरोध कानूनों को अनुच्छेद 14, 19, या 21 के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती है।
C. न्यायालय ने निवारक निरोध के लिए आनुपातिकता (doctrine of proportionality) का सिद्धांत पेश किया।
D. इस मामले ने संविधान के तहत निवारक निरोध को समाप्त कर दिया।

उत्तर: B. न्यायालय ने माना कि निवारक निरोध कानूनों को अनुच्छेद 14, 19, या 21 के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती है।

व्याख्या:

  • अदालत ने निवारक निरोध को मौलिक अधिकारों के सामान्य संरक्षण से बाहर रखा।
  • इस मामले में मेनका गांधी (1978) सिद्धांत का विस्तार निवारक निरोध तक नहीं किया गया।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा – अभ्यास प्रश्न

प्र. “निवारक निरोध मौलिक अधिकारों का अपवाद है और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक आवश्यक उपकरण है। हालाँकि, इसका दुरुपयोग भारत में स्वतंत्रता और लोकतंत्र के लिए एक ख़तरा पैदा करता है।” आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। (150 शब्द)

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